संपादकीय द्वारा मिर्जापुर ब्यूरो बांकेलाल निषाद "प्रणव"
अवध के स्वरूप की यथार्थ व्याख्या करते स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज
विश्व गुरु विश्व गौरव से सम्मानित यथार्थ गीता के प्रणेता तत्व द्रष्टा महापुरुष परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज ने अवध प्रसंग की यथार्थ व्याख्या की। उन्होंने बताया कि तुलसी महाराज एक महापुरुष थे वे अंतःकरण की व्याख्या किये हैं उन्होंने अपने उद्बोधन में बताया कि मानस का तात्पर्य मन से है रामचरितमानस में वही अंकित है जो प्रायः सबमें प्रसुप्त एवं किसी किसी में ही जागृत रहता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने गम्भीरतम विषय को छिपा के लिखा है ताकि अधिकारी प्राप्त कर ले और अनाधिकारी प्रयास करें। मानस में चर्चित अवध का तात्पर्य पूज्य स्वामी जी ने कहा कि वध कहते हैं नाशवान को मरणधर्मा को और अवध कहते हैं जिसका वध न किया जाए जो अनश्वर हो यह भगवान से मिलने वाली भगवत रहनी है जो काल से अवाधित है। साधक के हृदय में जब भगवत तत्व का संचार होता है तो उस समय वह विघ्नसहित है उसी की प्रेरणा से संपूर्ण विकारों के शमनोपरांत जब रामराज्य की स्थिति का अभ्युदय हो जाता है तत्क्षण सेवक का कार्य समाप्त हो जाता है और स्वामी की ही रहनी मात्र शेष रह जाती है। पूज्य गुरुदेव भगवान ने राम के साथ अवध को चलता फिरता धाम कहा। उन्होंने अपने श्रीमुख से बताया कि अवध तहां जहं राम निवासू।
तहंइं दिवसु जहं भानु प्रकासू
जहां सूर्य प्रकाशित है वहीं दिन है और जहां राम है वहीं अवध है यथार्थता राम तो सर्वत्र है परन्तु प्रेममयी साधना द्वारा ही किसी किसी के के हृदय देश में प्रकट हुआ करते हैं और उस राम के प्रकट होते ही अवध की स्थिति आ जाती है उस अवध स्थिति में शरीर का चाहे जब जहां भी परित्याग कर दिया जावे किंतु मृत्यु से सम्बध नहीं रहता केवल शारीरिक निधन ही मृत्यु नहीं कहलाती
*अवध प्रभाव जान तब प्रानी*
*जब उर बसहिं राम धनु पानी*
अवध का प्रभाव जैसा कि अजर अमर कर देने की विशेष योग्यता है वह मानव के लिए तभी प्रत्यक्ष होता है अर्थात पुरुष तभी जान पाता है जब इष्ट राम की स्थिति थ्यान के माध्यम से हृदय में आ जाय क्योंकि जहां राम रहते हैं वहीं अवध है। अतएव जब तक राम की स्थिति नहीं मिल जाती तब तक अवध में प्रवेश नहीं कर सकते। याद रखें ईश्वर का निवास स्थान हृदय है उन्होंने जब कभी भी विश्राम करने के लिए स्थान पाया तो हृदय में ही अन्यत्र कहीं नहीं। समस्त विकारों के शमनोपरांत आकाशवत निर्विकार स्थिति द्वारा हृदय देश में राम के आने का,समय हो गया अर्थात् स्थिति वहां तक पहुंच गई, जहां कि राम के साम्राज्य का स्थान है। अब आप यह स्मरण रखें कि भगवान का निवास स्थान हृदय है हम चिंतन के द्वारा ज्यों ज्यों इष्ट के करीब होंगे, त्यों त्यों भयरहित अवध्य स्थित का संचार हृदय देश में प्रसारित होने लगता है, किंतु राम की पूर्ण स्थिति जिस क्षण इस शरीर के अंदर आ जायेगी, उसी समय यह संपूर्ण शोभा की खानि हो जाती है। यही जीवात्मा अवध्य हो जाती है। इसलिए
*अवध पुरी प्रभू आवत जानी*
*भइ शकल सौभा कै खानी*
जहां राम निवास करते हैं वहां अवध्य स्थित का प्रसार हो जाता है जब भगवत प्राप्ति की स्थिति में आ जाते हैं तो यह शरीर स्वता संपूर्ण शोभा की खानि बन जाता है और इससे अवध्य स्थित का चित्रण होने लगता है ईष्ट देव के शब्दों से ही इस स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। अन्यत्र इससे अवगत होने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए राम समझाते हुए कहते हैं कि
*सुनु कपीस अंगद लंकेसा*
*पावन पुरी रुचिर यह देसा*
यह प्राप्ति स्थिति अत्यंत पुनीत, रमणीय एवं आलौकिक है। यद्यपि सर्वत्र बैकुंठ की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है परन्तु अवध सदृश मुझे वह भी प्रिय नहीं है। इस मार्मिक प्रसंग को कोई विरला ही समझ सकता है बैकुंठ, कामधेनु, अमृत इत्यादि यौगिक शब्द है। इन शब्दों के माध्यम से महापुरुषों ने इष्ट के सामीप्य की ऊंची नीची अवस्थाओं को व्यक्त किया है। इसलिए अंगद कहता है कि अरे बुद्धिहीन रावण! क्या बैकुंठ कोई नगरी वसी हुई है, जहां पहुंच कर डेरा डाल दोगे? कुंठ कहते हैं किनारे को अर्थात जो माप तौल में आ सके एवं बैकुंठ कहते हैं बेहद को, जिसका किनारा न मिल सके। जब तक साधक का चिंतन मापतौल के अंदर है (दो घंटे,चार घंटे,या आठ घंटे चलता है) अतः संख्या निर्धारित हो जाने से कुंठित है अर्थात किनारा मिल गया। यदि वही भजन धारावाही होने लगे ( जिसमें माप -तौल, किनारा आदि नहीं होते) तो यही स्थिति बेहद या बैकुंठ कहलाती है *यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ*!
*अति प्रिय मोहि कहां कै बासी*
*मम धामदा पुरी सुख रासी*
जो क्रमशः साधना पथ में चलकर अवध्य स्थित प्राप्त कर लेता है वह मुझे अत्यन्त प्रिय होता है, जैसा कि प्राण। जब तक भगवान का स्वरूप हृदय देश में प्रकट नहीं होता तब तक अवध का प्रभाव एवं स्वरूप ही पकड़ में नहीं आता। अवध्य स्थिति एवं इसका प्रकटीकरण एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात स्वरूप के साथ ही साथ अवध्य स्थिति भी तत्क्षण प्राप्त हो जाती है। पुनश्च
*उत्तर दिसि बह सरजू पावनि*
यजन पूर्ण स्वर ही सरयू है। उत्तर दिसा का तात्पर्य है ऊर्ध्वेता या उपरांम। इस प्राप्ति काल में यजन पूर्ण स्वर ऊर्ध्वेता अथवा उपराम हो जाता है। ऐसी स्थिति वालों का मज्जन व संग करने वाले मेरा सामीप्य पाते हैं।
*हर्षे सब कपि प्रभु बानी*।
*धन्य अवध जो राम बखानी*।।
ऐसा सुनकर सब हर्षित हुए एवं विशेष अवध से अवगत होकर बोले कि वह अवध धन्य है जिसकी प्रशंसा राम ने स्वयं की है इसलिए सिद्ध है कि अवध बहुत है। महात्मा तुलसी महाराज इन त्रुटियों से अवगत थे, इसलिए कल्याणकारी अवध पर बारंबार क्रियात्मक युक्तियों द्वारा विशेष बल दिये हैं जिससे कि मानव अपने जीवन में अवध के परिणाम का सही उपयोग कर सके । पूज्य गुरुदेव भगवान ने कहा कि जब रामराज्य अवध में स्थापित हो गया तो उस विशेष रामराज्य की स्थिति का चित्रण करते हुए व्यक्त किया गया है। गरुण का संदेश इतना बढ़ा कि कहीं उसका निवारण न हो सका वे नारद, शंकर आदि के पास से होते हुए कागभुशुण्डि के पास जा पहुंचे। उनका संपूर्ण संदेह आश्रम व महापुरुष के दर्शन से ही प्रायः दूर हो गया। कारण कि वे महापुरुष राम के अनन्य भक्त एवं प्रत्यक्षदर्शी थे वे ही प्रत्यक्षदर्शी महापुरुष जिस अवध में राम का राज्य है उसका चित्रण करते हुए कहते हैं --
*जब ते राम प्रताप खगेसा।*
*उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा*
*पुरि प्रकाश रहेउ तिहु लोका।*
*बहुपेन्ह सुख बहुतन मन सोका।*।
हे गरुड़ जी!
वह रामराज्य क्या था वह एक प्रकार का प्रचंड सूर्य प्रकट हुआ था जिससे तीनों मे पूर्ण प्रकाश छा गया। उसमें बहुतों को सुख हुआ एवं बहुतों को दुःख।
*जिन्हिइ सोक ते कहुं बखानी*।
*प्रथम अविद्या निसा निसानी!!*
*अघ उलूक जहां तहां लुकानी।*
*काम क्रोध कय रय सकुचानी।।*
जिन्हें शोक हुआ,उनका वर्णन सुनें, प्रथम तो अविद्या रूपी निशा का सदा के लिए अंत हो गया एवं अविद्या में पलने वाले काम क्रोध लोभ मोह इत्यादि उल्लु जहां तहां छिप गये अर्थात मायिक प्रवृत्ति का नाश हो गया। जो विकसित हुए, उनका वर्णन करते हुए कहते हैं कि ' -- *धरम तड़ाग ज्ञान विग्याना ए पंकज विधि से विधि नाना*
धर्म रूपी तालाब में विवेक, वैराग्य शम दम इत्यादि ईश्वरोनमुखी प्रवृत्ति पूर्ण रूपेण विकसित हो गयी अर्थात ईष्टोमुख समस्त गुणो का विकास हो गया ; किंतु इस रामराज्य की स्थापना जिस अवध में हुई, वह है कहां?
*यह प्रताप रवि जाकें, उर जब करइ प्रकाश।*
*पछिले बाढहिं प्रथम जे, कहे पे पावहिं नाश।।*
पूज्य गुरुदेव भगवान कहते हैं कि राम राज्य का यह प्रकाश जिसके हृदय में जिस समय व्याप्त हो जाता है तब पीछे बरसाये गये सभी ईष्टोमुख सद्गुणों का पूर्णतया विकास हो जाता है और अधोगति में ले जाने वाले मायिक दुर्गुण समूल नष्ट हो जाते हैं।
अब स्पष्ट हुआ कि राम के साक्षात्कार के साथ मिलने वाली अवध्य स्थिति ही अवध है, जो हृदय में प्रत्येक प्रयत्नशील साधक के लिए संभव है यह ईष्ट के स्थिति वाले किसी महापुरुष के अंतर्देश की स्थिति है वे जिस किसी को हृदय से पथ-प्रदर्शन करने लगे उसी के लिए सुलभ हो जाता है इस अवध की स्थिति की जानकारी वे ईष्ट स्वयं कराते हैं। कारण कि वह परमात्मा मन बुद्धि के क्षेत्र से सर्वथा परे है। यह क्रमशः चलने वाला क्रियात्मक पथ है जहां परामर्श का स्थान नहीं। यदि जीते-जी किसी को यह स्थिति मिल गयी तो वहां मृत्यु का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। *चारि खानि जग जीव अपारा*
*अवध तजें तनु नहिं संसारा*