भरत चौहान पूर्व सूचना अधिकारी व वरिष्ठ पत्रकार कि कलम से
सड़
कों के दाएं बाएं रोज हम गायों को विचरण करते हुए देखते हैं, भूख के कारण और कड़ाके की ठंड में इनकी रूहू काप जाती है परिणाम स्वरूप जिसको हमने माता कहा है वह सड़क के किनारे कुछ ही दिनों में तड़प तड़प कर दम तोड़ देती है। यह दृश्य जौनसार बावर सहित पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में सब जगह देखने को मिलता है।
हम जब छोटे थे तब गाय पर एक निबंध लिखते थे और उसका पहला ही वाक्य होता था कि "गाय हमारी माता है, जन्म-जन्म का नाता है...। जब तक गाय ने दूध दिया तब तक हमारा नाता गाय से रहा और जब गाय ने दूध देना बंद किया तब हमने उसे घर के खुटे से सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया। गाय के उपयोगिता के बारे में सब लोग जानते हैं अनेक मंचों पर गाय के महिमा का बखान होता है, अनेक सरकारें आयी और गई परंतु गाय माता को बचाने के लिए सब नाकाम साबित हुए।
संत समाज भी बड़े-बड़े आंदोलन कर रहा है कि गाय माता को राष्ट्रमाता घोषित करेंगे परंतु सड़क के किनारे तड़पती गाय की सुध लेने वाला कोई नहीं है।
हां इतना जरूर है कि यदि घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान हो तब पंडित जी कहते हैं की देसी गाय का गोबर और गोमूत्र चाहिए तब हम घर से कटोरा लेकर गाय को ढूंढते हैं और यदि कहीं मिल जाए तो गोमूत्र और गोबर लेकर अपने धार्मिक अनुष्ठान की इतिश्री इस नियत से करते हैं कि हमें इस धार्मिक अनुष्ठान का लाभ होगा। जिस गाय का गोबर और गोमूत्र लाए हैं क्या हमने कभी उस गाय को गौग्रास या घास दिया है यह कर्ज भी हम अपने ऊपर ढो रहे हैं।
आवारा पशुओं को आश्रय देने के लिए महासू गो सेवा सहयोग ने विराट खाई में एक प्रयास जरूर किया है मैं इसकी सराहना करता हूं। जौनसार बावर की हृदयस्थली साहिया में भी हमारे कुछ मित्रों ने एक गौशाला बना कर लगभग 60 गायों को वहां पर मरने से बचने का एक सार्थक प्रयास किया है यह पुण्य का कार्य है।
सभी लोगों से यह भी निवेदन करता हूं कि इन गायों के भरण पोषण के लिए हम जितना दान गांव में होने वाले टूर्नामेंट के लिए देते हैं कुछ अंश इन गायों के भरण पोषण के लिए भी आवश्य दे, ताकि हम गोवंश को बचा सके और पाप से पुण्य की ओर आगे बढ़े।